पंचायत हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति की पहचान है। यह हमारी गहन सूझ-बूझ के आधार पर व्यवस्था-निर्माण करने की क्षमता का परिचायक है। यह हमारे समाज में स्वाभाविक रूप से समाहित स्वावलमबन, आत्मनिर्भरता एवं संपूर्ण स्वतंत्रता के प्रति निष्ठा व लगाव का घोतक है। शुरू-शुरू में, पंचायत किसी निश्चित क्षेत्र से चूने पांच प्रतिष्ठित व्यक्तियों की एक निकाय होती थी। इसका निश्चित क्षेत्र एक गांव हुआ करता था। गाँव इसलिए कि यह एक स्वाभाविक और मूल इकाई थी। गाँव इसलिए भी कि इसके ऊपर की सभी इकाइयों का रूप बदलता रहा। देश और राज्य की सीमायें बड़ी-छोटी होती रहीं। भाषा और सत्ता के आधार पर देश और राज्य की व्यवस्था में परिवर्तन होता रहा, पर गांव एक स्थिर इकाई बना रहा। भूगोलिक एवं सामाजिक दोनों तरफ से यह इन सभी बदलावों से अछूता रहा। पंचायत शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ”पंचायतन” से हुई है। पांच प्रमुख व्यक्तियों के समूह के कारण यह संस्था पंचायत के नाम से लोकप्रिय हुई और इसके सदस्य पंच कहलाए। वैदिक काल में सभाओं या समितियों की कार्यप्रणाली को शुद्ध एवं निष्पक्ष रखने पर विशेष बल दिया जाता था। ये सभा और समितियां लोगों की भलाई के लिए कार्य करती थी।
ये ग्रामा यदरण्यं या सभा अभिभूम्याम।
ये संग्रामा: समीतियस्तेषु चारू वेदम ते।।
अर्थात पृथ्वी के ग्रामों, वनों एवं सभाओं में हम सुन्दर (चारू) वेदयुक्त वाणी का प्रयोग करें।
अथर्व वेद से एक अन्य उदाहरण:
”जनशक्ति उत्क्रांत होकर ग्राम सभा में परिणित हो गई। ग्राम सभाएं छोटी थी एवं एक-दूसरे से संबंधित नहीं थी, इस कारण जन शक्ति और उत्क्रांत होकर समिति में परिणित हुई। इस समिति का स्वरूप विस्तृत था, अतः इसके द्वारा संकल्पित विचारों के क्रियान्वयन हेतु एक प्रतिनिधि सभा के गठन की आवश्यकता अनुभव की गई तथा जनशक्ति का स्वरूप प्रतिनिधि सभा के रूप में सामने आया।”
उत्तरवैदिक काल में पंचायत व्यवस्था में और परिमार्जन हुआ। गांव के मुखिया को ”ग्रामीण” कहा जाने लगा तथा धर्मशास्त्रों में पंचायतों को सशक्त बनाने के उद्देश्य लिपिबद्ध किए जाने लगे। मनु ने ग्राम सभाओं में भाग लेने वाले व्यक्तियों हेतु राग-द्वेष से रहित होकर ग्राम सभा में जाना तथा न्याय के हित में अपने विचार प्रकट करना आवश्यक बताया। मनुस्मृति के अनुसार गांव के अधिकारी को ग्रामीण कहते थे। उनका कार्य कर आदि की वसूली करना था। इस गांव के ऊपर एक और कर्मचारी होता था, जिसे दशिक के नाम से जाना जाता था। 20 गांव के ऊपर के कर्मचारी को भी विशापित करते थे। 100 गांव से ऊपर के कर्मचारी का नाम सतपाल था तथा 1000 गांव के ऊपर के कर्मचारी का नाम सहस्रपति था। स्थानीय कार्यकलाप जैसे प्रशासन व न्याय, सुव्यवस्थित समितियों या पंचायतों के द्वारा राज्य के आदेश से प्रशासित होते थे। इस समय के शिलालेख बताते हैं कि स्थानीय समस्याओं को निपटाने के लिए बाग निरीक्षण, तालाब निरीक्षण, न्याय निरीक्षण आदि समितियों का गठन किया जाता था।
बाल्मीकि कृत रामायण में प्रधान एवं वृद्धजन की कार्यप्रणाली स्पष्ट की गई है तथा महाभारत में ग्रामसभा से लेकर जनपदों तक की सुव्यवस्थित एवं सो संगठित संरचना विद्यमान रहने का उल्लेख है। बाल्मीकि रामायण में एक जगह कहा गया है:
अर्थात मेरे द्वारा रखे गए उच्च विचार यदि वास्तव में उचित प्रतीत होते हैं तो इन विचारों को लागू करने की अनुमति दी जाये। दूसरे शब्दों में आप मेरा मार्गदर्शन करें।
कौटिल्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ”अर्थशास्त्र” में ग्राम पंचायतों की स्थानीय शासन एवं न्याय व्यवस्था में भूमिका का उल्लेख करते हुए लिखा है:- स्थानीय विवादों का निर्णय ग्राम वृद्धों, मुखिया वर्ग एवं सामंतो द्वारा किया जाता है। यदि ग्राम वृद्ध या सामंत किसी विवादग्रस्त विषय पर निर्णय लेने में मतभेद रखते हैं, तो उस स्थान की जनता की अनुमति से वहां के धार्मिक पुरुष उस विषय पर निर्णय ले सकते हैं अथवा मध्यस्त को नियत कराकर उससे निर्णय करवाया जा सकता है। गांवों की जमीन व अर्थ संपत्ति की देखरेख ”श्रेस्ठीयों” द्वारा होती थी।
यदि किसी विवाद में दो या दो से अधिक ग्रामों के व्यक्ति संबंध हो, तो विवादों का निर्णय सभी ग्रामों के मुखिया द्वारा किया जाता था। कौटिल्य अर्थशास्त्र मैं एक गांवों के मुखिया को ग्राम वृद्ध; 5 गाँवों के मुखिया को पंचग्रामी तथा 10 गांव के मुखिया को दसग्रामी कहा गया है।
यूनानी राजदूत मेगास्थनीज के लेखों से भी ज्ञात होता है कि तत्कालीन मौर्य शासन-व्यवस्था में ग्राम सभा या ग्राम संघ होते थे, जो विवादों का निपटारा करने हेतु उत्तारदायी थे। जातक कथाओं में बौद्ध काल में सुस्थापित पंचायत तंत्र का उल्लेख है। ग्राम सभा के प्रधान को ”भोजक” कहा जाता था, जिसका निर्वाचन ग्रामवासियों द्वारा किया जाता था। सभाओं में ग्राम भोजक के साथ गांवों के वृद्ध एवं अधिकांश ग्रामीण भाग लेते थे। मुगल शासन काल में गांव की न्याय व्यवस्था ग्राम पंचायतों या ग्राम सभाओं में निहित थी। अकबर के शासन काल में पंचायती राज संस्थाओं को काफी हद तक नैतिक एवं प्रशासनिक सहयोग प्राप्त था। काजी, मुफती, मीर आदि न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के उपरांत भी ग्राम पंचायतों की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रही।
मुगल शासकों के पैर अच्छी तरह जम जाने के पश्चात उन्होंने जागीरदारी प्रथा आरंभ की। जागीरदार राजस्व एकत्र करता था। इसके परंपरागत स्वशासन की व्यवस्था को कमजोर किया। स्थानीय प्रशासन के अधिकांश कार्य और अधिकार भू-स्वामियों और सरकारी अफसरों को हस्तांतरित कर दिए गए। इन जागीरदारों ने ग्रामीण जीवन के ताने-बाने में स्वशासन या पंचायती व्यवस्था के जो भी तथ्य थे, उनका विनाश शुरू कर दिया। मुगल काल के पतन के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा देश में अपनी प्रशासनिक नीतियां लागू करने से पंचायतों की संगठनात्मक शक्ति में कमी आने लगी। ब्रिटिश शासनकाल में व्यापक पैमाने पर दीवानी एवं दंड न्यायालयों की स्थापना किए जाने एवं इनमें अधिकांश मामलों की सुनवाई होने के कारण ग्राम पंचायतें शनै:-शनै: अपने प्राधिकार से शून्य होती चली गई।
1821 में एल्फिन स्टोन ने ग्राम पंचायतों की शक्तियों को सीमित करने को अनुचित ठहराया।
1857 में ग्रामीण स्वायतशासी निकायों को कुछ महत्व प्रदान करते हुए कुछ राज्यों में जिला कोषों की स्थापना की गई तथा ग्रामीण प्रशासन को भू-राजस्व, शिक्षा एवं पथकर पर लगाने के अधिकार प्रदान किए गए।
1882 में भारत में स्वायत शासन के जनक माने जानेवाले लॉर्ड रिपन ने ग्रामीण क्षेत्रों में बोर्ड अथवा मंडलों की स्थापना का सुझाव दिया। उनके अनुसार प्रशासन की इकाई उपखंड, तहसील अथवा तालुका स्तर से नीचे की होने चाहिए थी। उन्होंने मंडलों में दो तिहाई निर्वाचित प्रधान रखे जाने का सुझाव दिया।
1884 में चेन्नई एवं बंगाल में यूनियन पंचायतों के गठन के संबंध में कार्यवाई एक उल्लेखनीय प्रयास था, जिसका कार्यक्षेत्र कुछ गांव के समूह तथा।
1907 में चार्ल्स हाब हाउस की अध्यक्षता में गठित शाही विकेंद्रीकरण आयोग द्वारा ग्राम पंचायतों को स्थानीय स्वशासन की सबसे निचली इकाई के रूप में पुनर्जीवित करने की अनुशंसा की गई, क्योंकि लोग विकेंद्रीकरण चाहते हैं और सरकारी अधिकारियों के बर्ताव से भिन्न है।
आयोग की महत्वपूर्ण अनुशंसायें:-
ग्रामीण जनता अपना प्रतिनिधि स्वयं चूने, फौजदारी एवं दीवानी मुकदमें सुनने के अलावा गांव की सफाई, तालाब. कुओं, एवं सड़कों के निर्माण, प्राथमिक शिक्षा आदि पंचायत के काम में शामिल किया जाए; जिला बोर्ड द्वारा लगाए गए भूमिकर का हिस्सा गांव पंचायतों को जाए, जिला बोर्ड व जिलाधीश द्वारा स्थानीय सुधार के लिए विशेष अनुदान दिया जाए; तलाबों व बाजारों आदि से प्राप्त आय पंचायतों को मिले, उन मुकदमों की फ़ीस मामूली रखी जाए, जिनकी सुनवाई पंचायतें करें। पंचायती राज को सशक्त बनाने हेतु लाहौर अधिवेशन, 1909 में प्रस्ताव पारित किया की सरकार ग्राम स्तर से ऊपर तक जननिर्वाचित स्थानीय निकाय स्थापित करने के लिए उचित कदम उठाए, पर सिफारिशें कागज तक सीमित रह गई इतना जरूर हुआ कि 1911में वाईसराय की कोंसिल में एक सदस्य का इजाफा हुआ, जिसे शिक्षा व स्थानीय स्वशासन का प्रभारी बनाया गया।
1915 में भारत सरकार के एक प्रस्ताव पारित करके पंचायतों से संबंधित कानून तथा नियम बनाने का कार्य प्रांतीय सरकारों पर छोड़ दिया। प्रस्ताव में सुझाव दिया गया था कि बंगाल की चौकीदारी पंचायतों, मद्रास के स्थानीय निधि संघों, बंबई की स्वच्छता समितियों तथा उत्तर प्रदेश व पंजाब की ग्राम पंचायतों को शक्तियां तथा वित्तीय साधन दिए जाए ताकि वे समर्थ और सक्षम बन सके।
यह ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध जन आंदोलन का दौर था। राजनीतिक जागृति के फलस्वरूप अगस्त 1917 में ब्रिटिश सरकार ने सरकार के विभिन्न स्तरों में भारतीयों को भागीदारी देने तथा पंचायतों को कारगर व सशक्त बनाने का ऐलान किया। इसी पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर 1919 में ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम, 1919 पारित किया, जिसे मांटग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के नाम से भी जाना जाता है। इस अधिनियम में पंचायती प्रांतीय सरकारों को हस्तांतरित करने की बात कही गई। पंचायतों के अधिकारों एवं कार्यों पर जोर देते हुए कहा गया कि वे जहां-जहां सफल रूप से कार्य कर रही है, वहां-वहां उन्हें छोटे-मोटे दीवानी व फौजदारी मामले निपटाने के अधिकार तथा स्थानीय कर लगाने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए परिणामतः 1925 तक 8 प्रांतों में पंचायत अधिनियम पारित हो चुके थे। बंगाल स्वायत् शासन अधिनियम, 1920; बंबई ग्राम पंचायत अधिनियम, 1920; मद्रास पंचायत अधिनियम, 1920; उत्तर प्रदेश ग्राम पंचायत अधिनियम, 1920; पंजाब पंचायत अधिनियम, 1922 तथा असम स्वायत्त शासन अधिनियम, 1925। इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्यों में भी पंचायत अधिनियम पारित किए गए।
1919 के भारत सरकार अधिनियम ने जहां पंचायत का विषय राज्य सरकार को हस्तांतरित किया वहां भारत सरकार अधिनियम, 1935में पंचायतों को प्रांतीय विधायक सूची में सम्मिलित कर दिया। 1937 में जब सभी प्रांतों में सरकारें बनी तो सभी ने पंचायतों को जनप्रतिनिधित्व की संस्थाएं बनाई। 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिर जाने से इस प्रक्रिया में पुनः गतिरोध आ गया । 1936 से 1946 तक भारत में हर स्तर पर गवर्नर का ही शासन चला और जनता की भागीदारी के स्थान पर नौकरशाही का बोलबाला रहा । इस काल में पंचायतों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया।
महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य स्वाधीन भारत में ग्रामीण स्वराज्य के माध्यम से रामराज्य का स्वप्न साकार करना था।
”ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसियों पर भी निर्भर नहीं रहेगा; और फिर भी बहुत-सी दूसरी जरूरतों के लिए-जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा- वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर गांव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज व कपड़ों के लिए पूरा कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी जमीन होगी चाहिए जिसमें पशु चर सके और गांव के बड़ों व बच्चों के लिए मनोरंजन के साधन और खेल-कूद के मैदान आदि का बंदोबस्त हो सके। प्रत्येक गांव की अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभा भवन होगा। कुआं व तालाबों पर गांव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालीम के आखिरी दर्जे तक शिक्षा सबके लिए जरूरी होगी। जहां तक हो सकेगा, गांव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएंगें। गांव का शासन चलाने के लिए हर साल गांव के 5 आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी जिसके लिए नियमानुसार एक खास निर्धारित योग्यता वाले गांव के मालिक स्त्री-पुरुषों को अधिकार होगा कि वे अपने पंच चुन ले। इन पंचायतों के पास सभी प्रकार के आवश्यक सत्ता और अधिकार रहेंगे। यह पंचायत अपने 1 साल के कार्यकाल में स्वयं ही धारा-सभा न्याय-सभा और कारोबारी सभा का सारा काम संयुक्त रूप से करेंगी।
पंचायत व्यवस्था पर गांधीजी के विचार
15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ पर नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का गठन पहले ही दिसंबर 1946 में किया जा चुका था। संविधान सभा में जब उद्देश्य और लक्ष्य संबंधित प्रस्ताव पेश किया गया तो उसमें स्वतंत्र भारत में पंचायतों के स्थान, भूमिका आदि का कोई उल्लेख नहीं था। 29 अगस्त 1947 को संविधान के मसौदे की समीक्षा कर संशोधन के लिए आवश्यक सुझाव देने हेतु निम्न 7 सदस्य समिति गठित की गई;- सर्वश्री डॉक्टर बी आर अंबेडकर. एंड गोपालास्वामी अयंगर, अलादी कृष्णस्वामी अय्यर, के एम मुंशी सैयद मोहम्मद सहुला, बीएल मित्तर तथा डीपी खेतान। समिति द्वारा संशोधित मसौदा संविधान सभा ने नवंबर 4, 1948 को प्रस्तुत किया गया।
प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक श्रीमन नारायण एवं उनके सहयोगियों द्वारा ग्राम राज्य की अवधारणा को व्यवहारिक रूप देने के लिए संविधान में उचित प्रावधान करने की आवश्यकता पर बल दिया गया। 22 नवंबर 1948को डीके संथानम ने संविधान सभा में ग्राम पंचायतों के गठन और उन्हें अधिकार देने की आवश्यकता से संबंधित प्रस्ताव पेश किया। फलस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 40 में निम्नलिखित प्रावधान किए गयें:-राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करने के लिए अग्रसर होगा और उनको ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा, जो उनको स्वायत्त शासन इकाई के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।
1951 मैं प्रथम पंचवर्षीय योजना लागू की गई। 1952 में गांव के आर्थिक-सामाजिक विकास हेतु सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किए गए। अपेक्षित परिणाम नहीं प्राप्त होने तथा जनता की सहभागिता कम होने संबंधी आलोचनाओं के कारण 1957 में समुदायिक विचार कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु जन सहभागिता की समस्या के समाधान के संबंध में अध्ययन करके सुझाव देने हेतु बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।
मेहता समिति की रिपोर्ट 24 नवंबर 1957 को सरकार के समक्ष प्रस्तुत की गई। समिति का प्रमुख निष्कर्ष था कि आम लोगों को ग्रामीण विकास योजनाओं में भागीदार बनने के लिए आवश्यक है की योजना एवं प्रशासनिक सत्ता दोनों की विकेंद्रीकरण हो। मेहता समिति की रिपोर्ट राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा स्वीकृत कर ली गई। अंततः 2 अक्टूबर, 1959 को बलवंत राय मेहता की सिफारिशों की क्रियाविंती में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने नागौर जिले में पंचायती राज का उद्घाटन करते हुए इसे नए भारत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक कदम बताया।
तदोपरांत 1 नवंबर, 1961 को आंध्र प्रदेश में इस व्यवस्था को लागू किया गया। आगामी 3 से 4 वर्षों में सारे देश में ग्राम पंचायतों की स्थापना हुई। अधिकांश राज्यों में मेहता समिति की सिफारिशों के अनुरूप त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था लागू की गई- ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खंड स्तर पर पंचायत समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद। अधिकांश राज्य में विकास से संबंधित सभी विभागों को जिला परिषद द्वारा समविंत किया जाने लगा। राजनीतिक संरचना में भी जिला परिषद एवं पंचायत समिति के अध्यक्षों के महत्व में वृद्धि हुई।
पंचायती राज की स्थापना के उपरांत निरंतर इस व्यवस्था को सशक्त बनाए रखने के उपाय जारी रखे गये। विभिन्न कालखंडों में अलग-अलग समितियों का गठन किया गया:- सामुदायिक परियोजनाओं तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवाओं पर कार्य दल की रिपोर्ट, बलवंत राय मेहता समिति, 1957; खंड स्तरीय नियोजन पर कार्य दल एमएलए दोतवाला समिति, 1977-78; पंचायती राज संस्थाओं पर अशोक मेहता समिति 1978; खंड स्तरीय नियोजन पर दिशा-निर्देश हेतु अजीत मजूमदार समिति, 1978; जिला नियोजन पर कार्यदल सी एच हनुमंत राय समिति, 1983-84; ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम प्रशासन पर जीवीके राव समिति,, 1985; पंचायती राज संस्थाओं की समीक्षा पर ऍम एल सिंघवी समिति, 1986 तथा जिला नियोजन पर वीके थुंगन समिति, 1978 आदि।
संथानम समिति के सुझाव:-
- 1000 से 1500 की जनसंख्या पर ग्राम पंचायत का गठन।
- कार्यकाल 5 वर्ष।
- पंचायत के कार्यकारिणी समिति या न्याय पंचायत में सदस्यों की पर्याप्त संख्या।
- संस्थाओं को पर्याप्त अधिकार।
बलवंत राय मेहता समिति के सुझाव :-
- योजना एवं प्रशासनिक सप्ताह दोनों का विवेक केंद्रीकरण ताकि आम नागरिक या महसूस करें कि शासन प्रक्रिया में उसका भी योगदान है।
- सांविधिक एवं निर्वाचित त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था।
- तीनों संस्थाओं में अंतरसंस्थात्मक आंतरिक संबंध।
- विकास योजनाओं की क्रियांविती का दायित्व।
अशोक मेहता समिति के सुझाव अगस्त ,1978:-
- दो स्तरीय पंचायतें: जिला स्तर पर जिला प्रसिद्ध था मंडल या ब्लॉक स्तर पर मंडल पंचायत।
- ग्रामीण पंचायत की स्थापना की सिफारिश नहीं। मंडल पंचायत 15000-20000 की जनसंख्या पर।
- ग्रामों को ग्राम समितियों के माध्यम से मंडल पंचायत में शामिल किया जाना चाहिए। पंचायतों का कार्यकाल 4 वर्ष का।
- राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान के अलावा पंचायतों को अपने स्वयं के स्रोत भी विकसित करने चाहिए।
- मंडल पंचायतों का आधारभूत ढांचा मजबूत करने के लिए ग्रामीण बैंकों की स्थापना।
- जिला परिषद एवं मंडल पंचायत का नगरपालिकाओं से संबंध स्थापित होना चाहिए।
- कर्नाटक एवं मध्य प्रदेश के अतिरिक्त अन्य राज्यों में मेहता समिति के सुझाव को महत्त्व प्राप्त नहीं हुआ।
एल. एम सिंधवी रिपोर्ट: 27 नवंबर, 1986:-
- पंचायती राज संस्थाएं सैद्धांतिक अस्पष्टता, राजनीतिक इच्छा के अभाव एवं राष्ट्रीय स्तर पर प्राथमिकता नहीं दिए जाने की शिकार।
- सुदृढ़ीकरण हेतु संवैधानिक मान्यता आवश्यक, ताकि इन्हें राजनीतिज्ञों व नौकरशाही के हस्तक्षेप से दूर रखा जा सके। न्याय पंचायतों के गठन की सिफारिश।
- समिति द्वारा पंचायत से संबंधित संविधान संशोधन विधेयक का मसौदा भी तैयार किया गया।
- पंचायत को एक ऐसे समग्र संस्थागत ढांचे के रूप में विकसित किया जाए जिसका आधार नीचे से ऊपर की ओर उन्मुख लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण हो।
73वां संविधान संशोधन:- प्रमुख प्रावधान
(22 दिसंबर, 1992 को संसद द्वारा पारित; 24 अप्रैल 1993 को राष्ट्रपति की मंजूरी)
- इसके अस्तित्व में आने के 1 वर्ष के अंदर राज्य तदनुसार अपने पंचायती राज अधिनियम को संशोधित करेंगे।
- पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा।
- ग्राम सभा का प्रावधान।
- त्रिस्तरीय संरचना।
- 2000000 से कम की जनसंख्या वाले राज्य को मध्यवर्ती इकाई के गठन से छूट।
- सदस्य के पदों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण।राज्य चाहे तो पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू कर सकते हैं।
- सदस्य के पदों में महिलाओं के लिए कम-से-कम एक तिहाई स्थान सुरक्षित।
- अध्यक्ष के पदों के लिए भी आरक्षण व्यवस्था करने हेतु राज्य सरकारों को छूट।
- पंचायतों का कार्य कलाप 5 वर्ष।
- करारोपण की शक्तियां।
- वित्त आयोग का गठन।
- सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से।
- अध्यक्षों का निर्वाचन प्रत्यक्ष हो गया अप्रत्यक्ष, इस पर निर्णय लेने हेतु राज्य सरकारों को छूट।
- चुनावों से संबंधित समस्त पक्ष का अधीक्षण, निर्देशन एवं नियंत्रण राज्य निर्वाचन आयोग में निहित।
- लेखा एवं अंकेक्षण संबंधी प्रावधान।
- पंचायतों के अधिकार, कर्तव्य, प्रशासनिक एवं वित्तीय व्यवस्था आदि से संबंधित ऐसे नियम बनाने हेतु राज्य सरकार को छूट, जिससे यह संस्थाएं लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को यथार्थ रूप में चरितार्थ करते हुए जन आकांक्षाओं के अनुरूप प्रभावी ढंग से कार्य कर सके।
- स्थानीय महत्व के 29 विषयों को 11वीं अनुसूची में जोड़ते हुए इसके क्रियान्वयन से संबंधित दायित्व एवं अधिकार पंचायतों को।
बिहार मैं पंचायत राज्य व्यवस्था:-
- 1947 में देश को आजादी मिलने के साथ ही बिहार में बिहार पंचायत राज अधिनियम 1947 का अधिनियमन किया गया। इसके अंतर्गत केवल ग्राम पंचायत एवं ग्राम कचहरी के गठन की व्यवस्था थी। चुनाव 3 वर्षों के अंतराल पर कराने का प्रावधान था।
- तदोपरांत बिहार पंचायत समिति एवं जिला परिषद अधिनियम, 1961 का अधिनियमन किया गया, जिसके तहत अखंड स्तर पर पंचायत समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन हुआ।
- संविधान के 73वें संशोधन में नीहिट सत्ता के विकेंद्रीकरण की मूल भावना को अमल में लाने के उद्देश्य से” बिहार पंचायत राज अधिनियम 1993” अधिनियमित किया गया जिसके अंतर्गत त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था (ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति एवं जिला स्तर पर जिला परिषद) की स्थापना की गई।
- त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के अतिरिक्त, इस अधिनियम में ग्रामीण न्याय व्यवस्था हेतु प्रत्येक ग्राम पंचायत में ग्राम पकरी की अवधारणा को भी सम्मिलित किया गया।
- पंचायती राज व्यवस्था को और अधिक समुदाय केंद्रित एवं सशक्त बनाने के उद्देश्य से निम्नलिखित मुख्य प्रावधानों को समावेश करते हुए बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 का अधिनियम किया गया:-
- पंचायतों की कार्यावधि 5 वर्षों से अधिक नहीं होगा।
- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की कुल सीमा 50% से अधिक नहीं होगी।
- सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति कोटि के सदस्यों के लिए सदस्य के पदों पर जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण।
- अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए स्थानों के आरक्षण के पश्चात 50% की आदि सीमा के अंतर्गत करते हुए पिछड़े वर्ग के लिए कुल पदों का अधिनियम 20% आरक्षण अनुमान्य होगा।
- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछले वर्ग तथा महिलाओं के लिए अध्यक्ष के पदों में भी आरक्षण की व्यवस्था
- महिलाओं के लिए सभी स्तरों में अरक्षित और अनारक्षित कोटियो में सदस्य और अध्यक्ष के पदोंमें 50% का आरक्षण।
- वार्ड सभा/ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत/पंचायत समिति/जिला परिषद की बैठक संचालित करने हेतु निर्धारित कोरम पूर्ति अनिवार्य।
- पंचायती राज के निर्वाचित पर धारकों को अपने अधिकारों के दुरुपयोग तथा दुराचार आदि कारणों से हटाने तथा अधिकार सरकार से नीहित।
- तीनों स्तर की पंचायतों के निर्वाचित प्रधान को एवं संबंधित सरकारी पदाधिकारियों एवं कर्मचारियों के विरुद्ध प्राप्त शिकायतों की जांच हेतु लोक प्रहरी तंत्र का प्रावधान।
- पंचायती राज के निर्वाचित प्रतिनिधि एवं कर्मी अपने कर्तव्यों के निर्वहन भारतीय दंड संहिता, 1807 (अधिनियम 45, 1860) के अंतर्गत लोकसेवक समझे जायेंगे।
- पंचायती राज के पदधारकों हेतु मासिक नियत भत्ते का निर्धारण।
राज्य में पंचायती राज व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए उठाए गए कुछ अन्य महत्वपूर्ण कदम निम्न प्रकार है:-
- पंचायती राज संस्थाओं को राज्य सरकार की संचित निधि से भी सहायता अनुदान देने का प्रावधान है।
- पंचायती राज संस्थाओं का स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन संपन्न तराने हेतु बिहार राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया गया है।
- पंचायती राज संस्थाओं की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने हेतु सुझाव देने के वास्ते राज्य वित्त आयोग का गठन किया गया है। सम्प्रति षष्टम राज्य वित्त आयोग की अनुशंसा प्राप्त है।
- ग्राम पंचायत में शांति व्यवस्था संधारित करने से सहयोग करने तथा अकस्मिक घटनाओं में सहायता के उद्देश्य से ग्राम रक्षा दल के गठन की व्यवस्था की गई है।
- जिला पंचायत सेवा सोमवार की के सृजन का प्रावधान भी है। जिला परिषद कर्मचारियों के ऐसे संवर्ग का गठन ऐसी शर्तो एवं बंधेजो पर कर सकेगी, जैसा कि सरकार द्वारा विहित की जाए।
- प्रत्येक वार्ड के स्तर पर वार्ड सभा के गठन का प्रावधान किया गया है। वार्ड सभा अध्यक्ष संबंधित वार्ड के निर्वाचित ग्राम पंचायत सदस्य होंगे। वार्ड सभा में लिए गए प्रस्तावों पर विचार करना ग्राम सभा के लिए बाध्यकारी बना दिया गया है।
- सातवा ग्राम सभा द्वारा प्रत्येक ग्राम पंचायत के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र (वार्ड) स्तर पर निगरानी समिति के गठन का प्रावधान किया गया है।
- तीनों स्तर की पंचायत (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद) में समितियों का गठन का प्रावधान किया गया है।
- निर्वाचित प्रतिनिधियों के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने के पूर्व मानक संचालन प्रक्रिया का अनुपालन करना आवश्यक बना दिया गया है।
- पंचायतों से संबंधित मामलों की जांच एवं उन्हें मार्गदर्शन देने हेतु विजय बिहार पंचायत (कार्यालय का निरीक्षण एवं कार्यकलापों की जांच, पर्यवेक्षण एवं मार्गदर्शन) नियमावली, 2014 का गठन किया गया है।
- पंचायती राज संस्थाओं के संस्थान आत्मक कार्यों के सम्यक संचालन हेतु बिहार पंचायती राज संस्थान (कार्य संचालन) नियमावली, 2015 गठित की गई है।
- बिहार वार्ड सभा तथा वार्ड क्रियान्वयन एवं प्रबंधन समिति कार्य संचालन नियमावली, 2017 गठित की गई है।
- बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 की धारा 25 (अप) के अंतर्गत गठित लोक निर्माण समिति के विशेष भूमिका का प्रावधान किया गया है।
- बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 की धारा-25 में प्रावधान ग्राम पंचायत की स्थाई समितियों को प्रभाव कारी बनाने का निवेश किया गया।
- पंचायती राज संस्थाओं के प्रधान/उप-प्रधान के विरुद्ध के आरंभ होने के 2 वर्ष बाद भी अविश्वास प्रस्ताव लाने एवं किसी प्रधान/उप-प्रधान के विरुद्ध उसके पूरे कार्य काल में सिर्फ एक बार ही अविश्वास प्रस्ताव लाए जाने का प्रावधान किया गया है।
- पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचित पदधारको की हिंसा/दुर्घटना में मृत्यु हो जाने की स्थिति में उनके आश्रितों को ₹500000 का अनुग्रह अनुदान देने की व्यवस्था की गई है।
- प्रत्येक ग्राम कचहरी को उनके कार्य में सहायता प्रदान करने हेतु 1 ग्राम कचहरी सचिव एवं न्यायमित्र की सेवा उपलब्ध करायी गई है।
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ग्राम प्रधान पर आरटीआई कैसे करे ?
Article Source : पंचायती राज संस्थाओं के जनप्रतिनिधियों एवं कर्मियों के प्रशिक्षण के लिए सन्दर्भ सामग्री, पंचायती राज विभाग, बिहार सरकार